अनसुलझे सवालो को मन में लिए ,
मुसाफिर चला।
खोजता वो जवाबो को ,
भटका यहाँ वहां।
पूछता वो सबसे ,
क्या हैं वो मंज़िल बता।।
समेटता सबके विचारों को ,
थक कर आ पहुंचा ,
वो उस जगह ,
जहाँ मिल रहे जमीं और आसमा ,
जहाँ निर्मल बहते जल की धवनि ,
शीतल कर रही सूर्य की ऊष्मा ,
जहाँ वृक्ष की शाखाएँ हवा संग
कर रही अटखेलियाँ।।
बैठा दो घडी वो वहां ,
टटोलता अपने मन को ,
खोजता खुद को ,
सहेजा उसने आँखो में,
प्रकृति का वो असीम समां ,
और जान गया उसे ,
जिसकी
"खोज"
था कर रहा।।
"खोज"
था कर रहा।।
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वाह ! बहुत खूब ,सुंदर रचना
ReplyDeleteध्वनि कर लीजिए।
शुक्रिया! Dhruv
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