Tuesday 24 November 2015

khoj




अनसुलझे  सवालो को  मन में लिए ,
मुसाफिर चला। 
खोजता वो जवाबो को ,
भटका यहाँ वहां। 
पूछता वो सबसे ,
क्या हैं वो मंज़िल बता।।
समेटता सबके विचारों  को ,
थक कर आ पहुंचा ,
वो उस जगह ,
जहाँ मिल रहे  जमीं  और आसमा ,
जहाँ निर्मल बहते जल की धवनि ,
शीतल कर रही सूर्य की ऊष्मा ,
जहाँ वृक्ष  की शाखाएँ हवा संग
कर रही अटखेलियाँ।। 
बैठा दो घडी वो वहां ,
टटोलता अपने मन को ,
खोजता खुद  को ,
सहेजा उसने आँखो में,
 प्रकृति का वो असीम समां ,
और जान गया उसे ,
जिसकी 
 "खोज" 
था कर रहा।।
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2 comments:

  1. वाह ! बहुत खूब ,सुंदर रचना
    ध्वनि कर लीजिए।

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